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Friday, 12 June 2020

गुलाबो सीताबो फिल्म की समीक्षा: पुराने लखनऊ के इलाके और उसके लोगों पर व्यंग्य पर आधारित Gulabo Sitabho movie review: based on satire on the area of Old Lucknow and its people

News By: SANDEEP SINGH

गुलाबो सीताबो फिल्म की समीक्षा: पुराने लखनऊ के इलाके और उसके लोगों पर व्यंग्य पर आधारित 
Gulabo Sitabho movie review: based on satire on the area of Old Lucknow and its people

Gulabo Sitabo review - mildewed mansion drama bustles and crumbles ...
Shoot Time : Lucknow


स्टोरी: यह कहानी है फातिमा महल की मालकिन के पति मिर्जा (अमिताभ बच्चन) और उसके एक जिद्दी किराएदार बांके रस्तोगी (आयुष्मान खुराना) की, जिनके बीच लंबे समय से चले आ रहे झगड़े में कई और लोग अपना फायदा लूटने पहुंच जाते हैं।
रिव्यू: लखनऊ में मौजूद 100 साल पुरानी हवेली अपने जर्जर हालत में है और टूटने के कगार पर पहुंच चुका है। इस हवेली में कई परिवार 30-70 रुपये जितने मामूली पैसे देकर वहां किराए पर रहता है। वहां बाकी सभी लोगों के बीच में एक ही 'कीड़ा' है जो न तो किराया देता है और न ही वहां से जाता है और वह है- बांके, जिनका हमेशा एक ही बहाना रहता है- मैं गरीब हूं।

मिर्जा इन सबमें सबसे अधिक गुस्सैल हैं। वह 78 साल के खूंसट, शरारती व्यक्ति हैं जिसकी एक ही ख्वाहिश है कि वह उस हवेली के कानूनी मालिक बन जाएं और इसी कोशिश में वह हमेशा लगे भी रहते हैं। इन सबके बीच बांके एक दिन कॉमन टॉयलेट की दीवार को तोड़ देता है, जिसके बाद मिर्जा अपने इस फसाद को निपटाने पुलिस स्टेशन पहुंचता है।

इसी बीच एंट्री होती है आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (लखनऊ सर्कल) के मिस्टर गणेश मिश्रा (विजय राज) की। गणेश धौंस दिखाने वाला एक चालाक ऑफिसर है, जो यह भांप लेता है कि यह जर्जर खंडहर नैशनल हैरिटेज प्रॉपर्टी (शायद नहीं भी) बन सकता है। वह बांके को कन्विन्स करता है कि कैसे उसका प्लान उनके (बांके) और बाकी के किराएदारों के लिए बेहतर साबित हो सकता है। ...लेकिन मिर्जा भी बेवकूफ नहीं हैं और वह भी अपना सीक्रेट पाशा (ब्रिजेन्द्र काला) फेंकते हैं, जो कि प्रॉपर्टी के लफड़ों को सुलझाने में माहिर है।

अब यह खंडहर लड़ाई-झगड़ों का अड्डा बन चुका है, आखिर क्यों यह बिखरने के लिए तैयार यह खंडहर यहां रहने वाले लोगों से ज्यादा अहम हो गया है? शूजित सरकार की 'गुलाबो सिताबो' समाज और लोगों की सोच पर एक व्यंग्य की तरह है।

जूही चतुर्वेदी के डायलॉग और स्क्रीनप्ले कुशलता और परिहास से पूर्ण है, जो किरदारों के सनकी और मजेदार नेगेटिव कैरक्टर को पर्दे पर दिखाने में सफल है। मिर्जा जिसमें इस प्रॉपर्टी को लेकर जबरदस्त लालच और इसे लेकर वह शांत नहीं बैठता। वहीं बांके एक गरीब लड़का है जो फैमिली की जिम्मेदारियों के बोझ तले दबा हुआ है। वह मिर्जा को खीझ दिलाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार नजर आता है।

फिल्म में एक और अजीब जोड़ी है मिर्जा और फातिमा बेगम (फारुख जाफर) की, जो 15 साल से अलग रह रहे हैं, एक ऐसी शादी जिसकी अपनी ही विचित्र कहानी है। हालांकि इस फिल्म में मिर्जा और फातिम के सीन काफी कम हैं, यदि यह थोड़े और होते तो यह और भी मजेदार होते।

कहानी से हमें यही सीखने को मिलती है कि जिंदगी में अधिक की चाहत ठीक है, लेकिन बहुत ज्यादा लालच आपको सही जगह लेकर नहीं जाता। फिर चाहे वह किसी का दिल हो, घर हो या फिर महल।

यह एक ऐसी फिल्म है जो विवरणों में समृद्ध है। मिसाल के तौर पर, नेहरू की लखनऊ की बेगम की याददाश्त की दौड़, जिस तरह से वह उन पर थिरकती रहती हैं, ठीक उसी तरह जैसे भारत की मौजूदा गवर्निंग पार्टी का उनके प्रति जुनून। लेकिन पाठ्यक्रम के समान कारणों के लिए नहीं। मैंने फिल्म को दो बार देखा और महसूस किया कि शब्दों के बीच बहुत कुछ है, और लखनऊ की जगहें और ध्वनियाँ जो मुझे अभी भी याद आती हैं। क्या बेपनाह मोहब्बत है मोहब्बत का। दो इंसानों के बीच नहीं। गुलाबो सीताबो सभी के बीच प्यार और लालसा नहीं है, जो सभी के बीच पाया जाता है, सभी क्योंकि "हवेली के साथ आशिकी (हवेली को रोमांस करना)" रास्ते में आता है। लेकिन क्या यह सच्चा प्यार है? फिल्म का साउंडट्रैक यह सब कहता है। “क्या लेके आओ मैं” और “आना है जाना है, जीवन चल रहा है” जीवन की क्षणभंगुरता के सामने लोभ की निरर्थकता की याद दिलाते हैं। आखिरकार, यह सब जाने देने और आगे बढ़ने के बारे में है।

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